Thursday, October 29, 2015

ख्वाहिशें

ख्वाहिशो के परोंपर
कुछ उम्मीदे बैठी थी..
उम्मीदे मेरी खुद की
कुछ अनजानी..
किसी और की
समझ नहीं आया कैसे कब
लेकिन ख्वाहिशोंके पर
फड़फड़ाते चुप हो गए..
 मासूम जैसे
जैसे परोपर बैठी कोई उम्मीद
गिर ना जाए..
 टूट ना जाए
भाई उम्मीद कौन सी..
किस की
मेरी ख्वाबोंसे भरी आँखे
पता नहीं
अब  धीरे धीरे खुलने लगी है
आँखे खोलू तो पता चले
पर है तैयार
भरने उड़ान  उम्मीदोंसे भरी
लेकिन ख्वाहिशे..
कहाँ गयी...??
.
चढ़ा सूरज आँख में चुभा
तब निचे देखा
तो दंग रह गया

मेरी ख्वाहिशोंका साया
मेरेही पैरोतले!
....................................पुस्तकातून

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